भगवद गीता के 10 महत्वपूर्ण श्लोक और उनका अर्थ | Top 10 Slokas of Bhagavad Gita in Hindi

भगवद गीता के 10 महत्वपूर्ण श्लोक और उनका अर्थ | Top 10 Slokas of Bhagavad Gita in Hindi

भगवद गीता एक अत्यंत महत्वपूर्ण हिन्दू ग्रंथ है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को जीवन के महत्वपूर्ण मुद्दों पर समझाया जाता है।

इस ग्रंथ में श्रीकृष्ण के उपदेशों के माध्यम से जीवन के विभिन्न पहलुओं का समाधान प्रस्तुत किया गया है। यहां, हम भगवद गीता के 10 महत्वपूर्ण श्लोकों का अर्थ और महत्व जानेंगे:

भगवद गीता के 10 महत्वपूर्ण श्लोक और उनका अर्थ | Top 10 Slokas of Bhagavad Gita in Hindi

1- अर्जुन विषाद योग (अध्याय 1, श्लोक 1):

“धृतराष्ट्र उवाच | धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः | मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ||”

अर्थ-  धृतराष्ट्र ने कहा, “धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में युद्ध के लिए इकट्ठा हुए युद्धस्थल पर युद्ध रत्नों और योद्धाओं के साथ, हमारे और पाण्डवों के बीच युद्ध कैसे हो रहा है? सञ्जय, तुम्हें बताओ।”

इस श्लोक में, धृतराष्ट्र अपने मंत्रिजन सञ्जय से युद्धभूमि कुरुक्षेत्र का संदर्भ पूछ रहे हैं। धृतराष्ट्र कुरुक्षेत्र में युद्ध की समाचार सुनने की आशंका रखते हैं, और वे यह जानने की इच्छा करते हैं कि उनके पुत्र दुर्योधन और पाण्डव कैसे युद्ध के लिए तैयार हो रहे हैं।

इस श्लोक में कुरुक्षेत्र को ‘धर्मक्षेत्र’ कहा गया है, जिसका मतलब है कि यह जगह धर्म और कर्म के महत्वपूर्ण संघटन का प्रतीक है।

2- कर्मयोग (अध्याय 2, श्लोक 47)

“ते सर्वे ये युद्धे युद्धमन्ये केचना | तान्निबोध द्विपत्ते चान्ये युद्धमान्ये त्वमेऽपि ||”

अर्थ-  इस भगवद गीता के श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि युद्धभूमि कुरुक्षेत्र पर सभी लोग, चाहे वे पाण्डव हों या कौरव, युद्ध करने का इच्छुक हैं। यहाँ पर “केचना” शब्द सभी योद्धाओं का सम्पूर्ण संख्यात्मक संकेत है।

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि वे भी युद्ध में भाग लें, उनका योग्यता और क्षमता से। इसका संदेश यह है कि युद्ध का निर्णय योग्यता, योग्यता, और जानकारी के आधार पर लिया जाना चाहिए, और व्यक्तिगत इच्छाशक्ति और योग्यता के अनुसार किया जाना चाहिए।

भगवान श्रीकृष्ण यहां अर्जुन को योग्यता के माध्यम से सामर्थ्य और स्वाभाविक योग्यता को समझने का संदेश देते हैं, जिससे अर्जुन अपने कर्तव्य को निभा सकें। यह श्लोक व्यक्तिगत योग्यता और सामर्थ्य की महत्वपूर्ण भूमिका को बताता है, जो सभी कार्यों में महत्वपूर्ण होती है।

3- भक्तियोग (अध्याय 9, श्लोक 22)

“अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते | तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ||”

अर्थ-  इस भगवद गीता के श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण यह समझाते हैं कि वे भक्त जो अनन्य भाव से और बिना किसी दूसरे चिंतन के मन में मेरे परमात्मा की उपासना करते हैं, उनके लिए वह सब कुछ योग्य और सुरक्षित करेंगे। भगवान वह सब कुछ प्रदान करेंगे जो उनके भक्तों की आवश्यकता होती है, और वह उनके योग्यता और आवश्यकताओं की रक्षा करेंगे।

इस श्लोक में “अनन्य” शब्द का मतलब है जो भक्त जो किसी भी और चिंतन से मुक्त रहते हैं और केवल भगवान की उपासना करते हैं। इसका संदेश है कि भक्ति में पूरा मन और आत्मा समर्पित होना चाहिए, और जब हम इस भाव से परमात्मा की उपासना करते हैं, तो परमात्मा हमारी देखभाल करते हैं और हमें सब कुछ प्रदान करते हैं।

इस श्लोक का संदेश है कि भक्ति में विश्वास रखें, अपने चिंतन को परमात्मा की ओर मोड़ें, और परमात्मा की उपासना के माध्यम से अपने जीवन को सुखमय और योग्यता से भर दें। भगवान हमें सदैव पालना करेंगे और हमारी रक्षा करेंगे।

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4- ज्ञानयोग (अध्याय 4, श्लोक 7)

“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत | अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ||”

अर्थ-  इस भगवद गीता के श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण यह संदेश देते हैं कि जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब वह अपने आप को प्रकट करते हैं और धर्म की स्थापना के लिए उत्थान करते हैं।

यह श्लोक महाभारत के कुरुक्षेत्र युद्ध की संदर्भ कथा से जुड़ा है जब अर्जुन अपने सजनों और पुरुषार्थ को खो बैठा था और धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में युद्ध का आलंब दिया गया था। इसके परिणामस्वरूप, भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध के लिए उत्थान करने का संदेश दिया था।

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण यह समझाते हैं कि वे समय-समय पर आकर धर्म की रक्षा के लिए प्रकट होते हैं और अधर्म को प्रहार करने के लिए उत्थान करते हैं। उनका उद्देश्य धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश करना होता है।

यह श्लोक हमें धर्म के महत्व को समझाता है और यह दिखाता है कि धर्म की सुरक्षा के लिए भगवान समय-समय पर आकर उत्थान करते हैं। यह भी हमें यह बताता है कि धर्म की स्थापना के लिए हमें सदैव धर्म का पालन करना चाहिए और अधर्म के प्रति सख्त होना चाहिए।

5- कर्मसन्यासयोग (अध्याय 6, श्लोक 5)

“उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् | आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ||”

अर्थ-  इस भगवद गीता के श्लोक में दिखाया गया है कि व्यक्ति को अपने आप को उद्धारण करना चाहिए, न कि अपने आप को गिराना चाहिए। यदि हम अपने आप को गिराते हैं, तो हम खुद को ही दुखी बनाते हैं, क्योंकि हमारा आत्मा ही हमारा सबसे बड़ा मित्र और सबसे बड़ा शत्रु है।

इस श्लोक का संदेश है कि हमें स्वयं के साथ दया करनी चाहिए और खुद को समर्पित करना चाहिए। यदि हम अपने आप को समझते हैं और स्वयं के साथ मिल जाते हैं, तो हमारा आत्मा हमारा मित्र बन जाता है और हमारी उन्नति में सहायक होता है। लेकिन यदि हम अपने आप को गिराते हैं, तो हम अपने आत्मा को ही अपना शत्रु बना देते हैं और हमें खुद को ही परेशानी पहुँचाते हैं।

इसलिए, हमें अपने आप को समझना और स्वयं के साथ मेल करना चाहिए, ताकि हम अपने आत्मा के साथ शांति और सुख का अनुभव कर सकें।

6- भक्तियोग (अध्याय 18, श्लोक 66)

“सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज | अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ||”

अर्थ- इस भगवद गीता के श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण यह समझाते हैं कि व्यक्ति को सभी प्रकार के धर्मों को छोड़कर केवल उनकी शरण में आना चाहिए। वह केवल भगवान की शरण में जाकर रहे, और भगवान से उनकी सभी पापों का मोक्ष करेंगे। भगवान भक्त को आत्मा के सब पापों से मुक्ति देंगे, इसलिए वह चिंता नहीं करने चाहिए।

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण भक्तों को संबोधित कर रहे हैं और उन्हें यह संदेश देते हैं कि वे सभी प्रकार के धर्मों और जीवन के कई आवश्यकताओं को छोड़कर केवल भगवान की शरण में आने का प्रयास करें। भगवान सभी पापों को माफ कर सकते हैं और भक्त को मोक्ष प्रदान कर सकते हैं।

यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि भगवान की शरण में आने से ही हम सभी पापों से मुक्त हो सकते हैं, और हमें चिंता और आत्मा के पाप से मुक्त रहने का सुझाव देता है।

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7- कर्मयोग (अध्याय 3, श्लोक 19)

“तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर | असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ||”

अर्थ- इस भगवद गीता के श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण यह समझाते हैं कि कर्मों को बिना आसक्ति और मोह के किया जाना चाहिए। व्यक्ति को अपने कर्मों में आसक्ति नहीं करनी चाहिए, क्योंकि आसक्ति कर्मों के परिणामों में दुख और सुख की उत्पत्ति करती है, जो बंधन का कारण बन सकता है।

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण व्यक्ति को कर्मों को समर्पित भाव से करने की सलाह देते हैं, जिससे वह आसक्ति और मोह से बच सकता है। आसक्ति कर्मों के फल में होने वाले उत्पादन को विचार में लेने की अपेक्षा, यह कर्मों को केवल कर्तव्य के रूप में करने की जरूरत होती है, बिना उनके फलों को सोचे।

यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि कर्म और कार्यों में आसक्ति के बिना ही हम परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं, क्योंकि यह हमें बंधन से मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ने में मदद करता है।

8- भक्तियोग (अध्याय 12, श्लोक 13)

“अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च | निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ||”

अर्थ-  इस भगवद गीता के श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण विभिन्न गुणों का वर्णन करते हैं, जो एक ज्ञानी और साधक में होने चाहिए।

अद्वेष्टा सर्वभूतानां: यह शब्द अद्वेष्टा सभी प्राणियों के प्रति द्वेष रहित होने का संकेत देता है। एक ज्ञानी को दुख और सुख के बारे में आपसी भावना नहीं होती, और वह सभी को समान भाव से देखता है।

मैत्रः करुण एव च: यह गुण मित्रता और करुणा के बारे में है। एक ज्ञानी सभी के साथ मित्र भाव से और करुणा भाव से व्यवहार करता है।

निर्ममो: यह शब्द निर्ममता या आत्मसमर्पण का संकेत देता है। ज्ञानी व्यक्ति अपने आत्मा को और दूसरों के आत्मा को समान दृष्टिकोण से देखता है और अपनी अहमकार को त्याग देता है।

निरहङ्कारः: इस शब्द से निरहंकारता का संकेत दिया जाता है, जिसका मतलब होता है कि ज्ञानी व्यक्ति अपने कार्यों के फल में आत्म-मान नहीं रखता है और उसका अहंकार नहीं होता।

समदुःखसुखः क्षमी: यह गुण समदृष्टि के बारे में है, जिसका मतलब होता है कि ज्ञानी व्यक्ति दुख और सुख को समान भाव से सह सकता है और उसमें भी कोई अहंकार नहीं रखता।

इस श्लोक का संदेश है कि ज्ञानी व्यक्ति को इन गुणों का संचय करना चाहिए, जो उसके आचरण और विचार में होने चाहिए, ताकि वह आत्मा के स्थिति को प्राप्त कर सके। इन गुणों के द्वारा वह आत्मा को प्राप्त कर सकता है और अनंत शांति और सुख का अनुभव कर सकता है।

9- कर्मयोग (अध्याय 4, श्लोक 13)

“चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः | तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ||”

अर्थ-  इस भगवद गीता के श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण यह समझाते हैं कि चातुर्वर्ण्य को मैंने गुण और कर्म के आधार पर सृजित किया है, और इसके कर्ता भी मैं हूँ, लेकिन मैं कर्ता के रूप में अविनाशी हूँ।

इस श्लोक का संदेश है कि भगवान ने वर्ण व्यवस्था को गुण और कर्म के आधार पर स्थापित किया है, और सभी मानव उसके अंश हैं। चाहे कोई भी वर्ण हो, वह अपने गुणों और कर्मों के माध्यम से परमात्मा की ओर प्राप्त हो सकता है।

इसके साथ ही, श्रीकृष्ण यह भी स्पष्ट करते हैं कि वे इस सर्वव्यापी कार्य के कर्ता हैं और वे अविनाशी हैं। इसका मतलब है कि भगवान के बिना कोई भी कर्म करने का यथार्थ कारण नहीं हो सकता है, और उन्हें दिव्य स्वरूप के रूप में मानना चाहिए।

इस श्लोक से हमें यह सिखने को मिलता है कि समाज में सभी को समान अवसर मिलने चाहिए, चाहे वह किसी भी वर्ण में हो। वर्ण व्यवस्था को गुणों और कर्मों के आधार पर समझने का संदेश दिया गया है, जिससे भगवान की ओर प्राप्ति के लिए सभी को अवसर मिले।

10- ध्यानयोग (अध्याय 6, श्लोक 6)

“बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः | अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ||”

अर्थ-  इस भगवद गीता के श्लोक में बताया गया है कि वह व्यक्ति जिसने अपने आत्मा को अपने आत्मा के द्वारा ही जीत लिया है, वह आत्मा का मित्र होता है। वह व्यक्ति आत्मा के माध्यम से ही अपनी मनोबल को नियंत्रित करता है और अपने कठिनाइयों को पार करता है।

विपरीत, जो व्यक्ति अपने आत्मा को नहीं जीतता है, वह अपने आत्मा के द्वारा ही अपने शत्रु बन जाता है। वह अपने आत्मा की ओर से अपने खुद के खिलवाड़े में ही अपने लिए दुश्मन बन जाता है।

इस श्लोक का संदेश है कि हमें अपने आत्मा को सदैव साथ ले कर चलना चाहिए, और उसे प्राप्ति और संजय की दिशा में मार्गदर्शन करने का प्रयास करना चाहिए। जब हम अपने आत्मा को जीत लेते हैं, तब हमारा आत्मा हमारा सच्चा मित्र बन जाता है और हमारी उन्नति में हमें सहायक होता है।

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FAQS

1- भगवत गीता में सबसे महत्वपूर्ण श्लोक क्या है?

“भगवद गीता” में सबसे महत्वपूर्ण श्लोक का चयन सुब्जेक्टिव हो सकता है, क्योंकि यह ग्रंथ भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच के दिये गए उपदेशों और ज्ञान का संग्रह है, जिसमें कई महत्वपूर्ण श्लोक हैं।

यह श्लोक व्यक्ति के आदर्श, योग्यता, और आत्मा के मार्ग के अंश के रूप में महत्वपूर्ण हो सकते हैं, और यह व्यक्ति के उद्धारण और आत्मा के मोक्ष के प्रति दिशा में महत्वपूर्ण ज्ञान प्रदान कर सकते हैं।

एक प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण श्लोक है “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥” (भगवद गीता 2.47) जिसका अर्थ है – “तुम्हारा कर्म करने का अधिकार है, लेकिन फलों का आकर्षण नहीं करना चाहिए। कर्मफल के लिए तुम्हें कभी भी कारण नहीं बनना चाहिए।”

यह श्लोक भगवद गीता का महत्वपूर्ण संदेश है और इसका मतलब है कि हमें कर्म करने में समर्पित रहना चाहिए और फल की चिंता नहीं करनी चाहिए। कर्मफल की चिंता से हमारा मानसिक और आत्मिक शांति प्रभावित हो सकता है। इस श्लोक के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण हमें निष्काम कर्म का महत्व बताते हैं, जिससे हम आत्मा के मोक्ष की ओर बढ़ सकते हैं।

NOTE: “भगवद गीता” के अन्य भी श्लोक हैं जिन्हें व्यक्ति अपनी स्थिति और आत्मा के मार्ग के अनुसार महत्वपूर्ण मान सकता है।

Final Words about Top 10 Slokas of Bhagavad Gita in Hindi: ये श्लोक भगवद गीता के महत्वपूर्ण संदेशों को संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं और हमें जीवन के विभिन्न पहलुओं का समझने में मदद करते हैं। यह श्लोक जीवन के मार्गदर्शक होते हैं और आत्मा के विकास में मदद करते हैं।

भगवद गीता के अध्ययन से हम अपने जीवन को एक सफल, सुखमय और आत्मा के उन्नति की दिशा में अग्रसर कर सकते हैं।

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